रात के तीसरे पहर
मैं
घबरा कर उठ गयी थी
छाती पर मानों कोई भारी सा पत्थर
रखा हो
पानी की घूंट ली
फिर चौखट पर तेरे कदमों की आहट
सी पायी
मैं स्तभ्द सी खड़ी रही
सोचती रही
तेरे कदमों की ही आहट थी
या उन यादों की
इन खयालो की रात बहुत लम्बी हो
गयी
भोर के इंतज़ार में
न जाने मेरी कितनी नींदें उड़
गयी
उस पहर न जाने कितनी बार सांकल
टटोली
पर तेरी मौजुदगी न पा कर
मैं समझ गयी
बिस्तर पर लौट गयी
अधमरी सी अचेत
चारों ओर का सूनापन बता रहा था
न इस चौखट से अब तेर कोइ वास्ता
रहा
न ही इस गली को तू याद रख पाया
छाती पर पड़ा पत्थर मानो और भारी
हो गया
और रात का वो तीसरा पहर
हमेशा के लिये
आज भी वैसा ही है
मेरे ज़हन में ज़िंदा
छाती पर भारी पत्थर के साथ
मुझे जगाये रखे !!!!!!!!!!
नीलम !!!!!!!!!!!!
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