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Tuesday 12 January 2016

मेरी सिगरेट



   मेरी सिगरेट

मेरी उँगलियों में जल कर
मेरी उँगलियों में ही बुझ जाती
मेरी सबसे प्रिय बन लबों से भी टकरा जाती
और निराकार हो राख बन झड़ जाती
मेरे दर्द में
मेरी ख़ुशी में
मेरे चिंतन में
हर बार मेरी उँगलियों को गर्माहट दे जाती
तुम्हे बुरा भला सब कहा
किसी ने कभी कभी न कभी छुटकारा पाने को भी कहा
पर अंत होने कि क्रिया को
तुझसे बेहतर कोई न समझा पाया
तुम बुरी हो या भली
नहीं जानती
मुझे जीवित रखे हो या नष्ट कर रही हो
नहीं समझ पाती
पर हाँ तुम हो तो कई दर्द पी गयी
तेरे संग न जाने कितने ही पल जी गयी
रात के घने अन्धकार में
मेरी उँगलियों में टिमटिमाती
न जाने तुम कितनी बातें कर गयी
कातिल बन कर भी
तुम कई बार जीवन दान बन गयी ............ नीलम ...........

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