जेल और जेलर
दरवाज़े के उस पार जो
सड़क है
आज़ादी की
देहलीज़ ही तो पार
करनी है
चलने के लिए उस पर
सड़क बड़ी है लम्बी
खींचती चली गयी जो
फिर ये छोटी सी
देहलीज़
पहाड़ सी बड़ी क्यूँ
लग रही है
दरवाज़ा जो बंद है
खोल कर भी उसे
क्यूँ बंद हो जाता
है
क्यूँ ये छत भी
रोक रही है
उस खुले आसमान को
देखने से
और वो सड़क जो रोज़
पुकार रही है
क्यूँ दरवाज़ा उसकी
आवाज़ कानो तक पहुँचने ही नहीं देता
क्यूँ देहलीज़
मगरमच्छ सी मुंह खोले
कदमों को लौटा देती
है
और दरवाज़ा काले पानी
की जेल का जेलर बन जाता है
आज़ाद होने से रोक
देता है
और फिर वही समाज की
कैदी बन
मैं सड़क को अनदेखा
कर देती हूँ
और लौट जाती हूँ उसी
जेल में
बेड़ियों में बंधी
चार दिवारी को संसार
समझ लेती हूँ
मेरे जैसे न जाने कितने कैदी हैं
मेरे जैसे न जाने कितने कैदी हैं
जिन्होंने जीने की
आज़ादी को चुराने का जुर्म किया है
और आज उम्र कैद काट
रहे हैं, मेरे ही साथ
कितने ऐसे भी थे
जो आज़ादी कि सड़क पर
पहुंचते ही मारे गए
कितनो को सज़ा ऐ मौत
भी मिली
ये दरवाज़ा जो लालच
दे
उस सड़क को दिखा बंद
हो जाता है
असल गुन्हेगार तो वो
है
देहलीज़ जो छोटी से
दिखती है
एक छलावा है
दोनों की ये मिली
जुली साज़िश है
जो मुझ जैसे न जाने
कितने कैदीयों को
या तो डरा के फिर
बेड़ियों में बाँध देती हैं
या ललचा के आजादी को
पाने के संगीन जुर्म में
सजाए मौत दिला देती
है .... नीलम.....
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