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Friday 15 January 2016

जेल और जेलर



  जेल और जेलर

दरवाज़े के उस पार जो सड़क है
आज़ादी की
देहलीज़ ही तो पार करनी है
चलने के लिए उस पर
सड़क बड़ी है लम्बी खींचती चली गयी जो
फिर ये छोटी सी देहलीज़
पहाड़ सी बड़ी क्यूँ लग रही है
दरवाज़ा जो बंद है
खोल कर भी उसे
क्यूँ बंद हो जाता है
क्यूँ ये छत भी
रोक रही है
उस खुले आसमान को देखने से
और वो सड़क जो रोज़ पुकार रही है
क्यूँ दरवाज़ा उसकी आवाज़ कानो तक पहुँचने ही नहीं देता
क्यूँ देहलीज़ मगरमच्छ सी मुंह खोले
कदमों को लौटा देती है
और दरवाज़ा काले पानी की जेल का जेलर बन जाता है
आज़ाद होने से रोक देता है
और फिर वही समाज की कैदी बन
मैं सड़क को अनदेखा कर देती हूँ
और लौट जाती हूँ उसी जेल में
बेड़ियों में बंधी
चार दिवारी को संसार समझ लेती हूँ
मेरे जैसे न जाने कितने कैदी हैं
जिन्होंने जीने की आज़ादी को चुराने का जुर्म किया है
और आज उम्र कैद काट रहे हैं, मेरे ही साथ
कितने ऐसे भी थे
जो आज़ादी कि सड़क पर पहुंचते ही मारे गए
कितनो को सज़ा ऐ मौत भी मिली
ये दरवाज़ा जो लालच दे
उस सड़क को दिखा बंद हो जाता है
असल गुन्हेगार तो वो है
देहलीज़ जो छोटी से दिखती है
एक छलावा है
दोनों की ये मिली जुली साज़िश है
जो मुझ जैसे न जाने कितने कैदीयों को
या तो डरा के फिर बेड़ियों में बाँध देती हैं
या ललचा के आजादी को पाने के संगीन जुर्म में
सजाए मौत दिला देती है .... नीलम.....

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