Followers

Friday 15 January 2016

रचना



  रचना

मैं न कांच की बनी हूँ
न रुईं की
मैं भी उसी हाड मांस की बनी हूँ
जिससे तुझे भी गढ़ा गया है
फिर भी नाज़ुक सी बन
मैं तुझसे कमज़ोर होने का नाटक करती हूँ
तुझे खुश रखने के लिए
कभी तुझे संभाले रखने के लिए
कितनी बार मज़ाक बनी
न जाने कहाँ कहाँ तेरे लिए गिरी
तेरा नाम खुद के नाम से जोड़े
कितनी महफ़िलो में खड़ी
कभी मेरी तारीफ़ सुन तूने गर्व से सीना फुलाया
और कभी न जाने ज़माने की बातें सुन
तूने मुझे ज़लील किया और करवाया
मैं न कांच की बनी हूँ न रुई की
असल बात का तुझे अंदाज़ा ही नहीं  
मैं नाज़ुक सी बन भी तुझे मज़बूत किये खड़ी हूँ
और तू पत्थर की शिला सा बन भी
एक झटके में न जाने कहाँ कहाँ चूर हुआ है
तुझे टूटने से बचाने के लिए
कभी बिखरने से संभालने के लिए
तेरी ताकत बन उठाने के लिए
मेरी रचना हुयी है
मैं न कांच की बनी हूँ
न रुईं की
उसी हाड़ मांस की बनी हूँ
जिससे तुझे भी गढ़ा गया है
फर्क है बस एक
मैं नाज़ुक सी बनी भी तुझे संभाले खड़ी हूँ .... नीलम......

No comments:

Post a Comment