इश्कबाज़
लम्बी सी रस्सियों
पर सुखते कपडे
कहीं लाल कहीं पीले
दुपट्टे
कहीं सुन्हेरे तारों
से जडी साडीयाँ
कहीं चादरों से
टपकती बुँदे
उन्हें सुखाने के
बहाने
छत पर आते वो
खूबसूरत से मुखड़े
हम भी छुपे टंगे
रहते छज्जे पर
कभी पतंग की डोर
संभालते
तो कभी टूटी रस्सी को
बाँधने के बहाने
इश्कबाजी के न जाने
कितने बहाने ढूँढ़ते
फिर एक दिन एक नयी
छत पर एक नयी रस्सी बंधी
हम ने भी रुख मोड़ा
उस ओर
कई दिनों तक झांकते
रहे
न कपडे टंगते न आता
कोई नज़र
फिर एक दिन अँधेरी
शाम में
एक चेहरा दिखा
डरा सहमा झाँक रहा
था चारों ओर
गिले कपडे हाथ में
पकडे
तेजी से झटकारते
उसके हाथ
यकीं ही न हुआ
ऐसे भी होता है क्या
प्यार
हम तो ऐसे गिरे
छज्जे से
मानो कोई घायल बेकार
आज तक न संभले हम
रोज़ कपडे आज भी
सूखते छत पर
फर्क सिर्फ एक है
सुखाने वाले, अब हम बन
गए, यार !!!!!!! ...... नीलम .........
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