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Thursday 14 January 2016

इश्कबाज़



   इश्कबाज़

लम्बी सी रस्सियों पर सुखते कपडे
कहीं लाल कहीं पीले दुपट्टे
कहीं सुन्हेरे तारों से जडी साडीयाँ
कहीं चादरों से टपकती बुँदे
उन्हें सुखाने के बहाने
छत पर आते वो खूबसूरत से मुखड़े
हम भी छुपे टंगे रहते छज्जे पर
कभी पतंग की डोर संभालते
तो कभी टूटी रस्सी को बाँधने के बहाने
इश्कबाजी के न जाने कितने बहाने ढूँढ़ते
फिर एक दिन एक नयी छत पर एक नयी रस्सी बंधी
हम ने भी रुख मोड़ा उस ओर
कई दिनों तक झांकते रहे
न कपडे टंगते न आता कोई नज़र
फिर एक दिन अँधेरी शाम में
एक चेहरा दिखा
डरा सहमा झाँक रहा था चारों ओर
गिले कपडे हाथ में पकडे
तेजी से झटकारते उसके हाथ
यकीं ही न हुआ
ऐसे भी होता है क्या प्यार
हम तो ऐसे गिरे छज्जे से
मानो कोई घायल बेकार
आज तक न संभले हम
रोज़ कपडे आज भी सूखते छत पर
फर्क सिर्फ एक है
सुखाने वाले, अब हम बन गए, यार !!!!!!! ...... नीलम .........

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