कुछ मेरा अपना
चाय का कप थामे
शब्दों का एक ताना
बाना बुनता है दिमाग
कभी ये शब्द दिमाग
में रेंगते
तो कभी दिल में उतर
जाते
और मेरे कागज़ पर
लाते लाते रूप बदल लेते
चाय का कप भी पूछ
बैठता
मेरी ज़रूरत है क्या
फिर से?
सिगरेट भी उँगलियों
को इशारा करती
सुलगा ही लो
वरना ये बचे कुचे
शब्द भी जल जायेंगे
और फिर वही शुरू
होता
चाय का कप और सिगरेट
दोनों मेरे दिमाग को दौड़ाते
भूले बिसरे शब्दों
को जाने कहाँ से ढूँढ लाते
चाय का वो कप जब तक
6-7 बार न भरता
और 4-5 सिगरेट जब तक
राख बन झड न जाती
शब्द कहीं छुपे बैठे
रहते
पर फिर जब वो निकलते
तो एक रचना होती
कुछ पैदा होता नया
सा
मेरे अन्दर से मेरा
अपना
जिसे मैं हर बार एक
नया नाम दे देती .... नीलम .....