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Saturday 16 January 2016

कुछ मेरा अपना



कुछ मेरा अपना

चाय का कप थामे
शब्दों का एक ताना बाना बुनता है दिमाग
कभी ये शब्द दिमाग में रेंगते
तो कभी दिल में उतर जाते
और मेरे कागज़ पर लाते लाते रूप बदल लेते  
चाय का कप भी पूछ बैठता
मेरी ज़रूरत है क्या फिर से?
सिगरेट भी उँगलियों को इशारा करती
सुलगा ही लो
वरना ये बचे कुचे शब्द भी जल जायेंगे
और फिर वही शुरू होता
चाय का कप और सिगरेट दोनों मेरे दिमाग को दौड़ाते
भूले बिसरे शब्दों को जाने कहाँ से ढूँढ लाते
चाय का वो कप जब तक 6-7 बार न भरता
और 4-5 सिगरेट जब तक राख बन झड न जाती
शब्द कहीं छुपे बैठे रहते
पर फिर जब वो निकलते तो एक रचना होती
कुछ पैदा होता नया सा
मेरे अन्दर से मेरा अपना
जिसे मैं हर बार एक नया नाम दे देती .... नीलम .....


Friday 15 January 2016

जेल और जेलर



  जेल और जेलर

दरवाज़े के उस पार जो सड़क है
आज़ादी की
देहलीज़ ही तो पार करनी है
चलने के लिए उस पर
सड़क बड़ी है लम्बी खींचती चली गयी जो
फिर ये छोटी सी देहलीज़
पहाड़ सी बड़ी क्यूँ लग रही है
दरवाज़ा जो बंद है
खोल कर भी उसे
क्यूँ बंद हो जाता है
क्यूँ ये छत भी
रोक रही है
उस खुले आसमान को देखने से
और वो सड़क जो रोज़ पुकार रही है
क्यूँ दरवाज़ा उसकी आवाज़ कानो तक पहुँचने ही नहीं देता
क्यूँ देहलीज़ मगरमच्छ सी मुंह खोले
कदमों को लौटा देती है
और दरवाज़ा काले पानी की जेल का जेलर बन जाता है
आज़ाद होने से रोक देता है
और फिर वही समाज की कैदी बन
मैं सड़क को अनदेखा कर देती हूँ
और लौट जाती हूँ उसी जेल में
बेड़ियों में बंधी
चार दिवारी को संसार समझ लेती हूँ
मेरे जैसे न जाने कितने कैदी हैं
जिन्होंने जीने की आज़ादी को चुराने का जुर्म किया है
और आज उम्र कैद काट रहे हैं, मेरे ही साथ
कितने ऐसे भी थे
जो आज़ादी कि सड़क पर पहुंचते ही मारे गए
कितनो को सज़ा ऐ मौत भी मिली
ये दरवाज़ा जो लालच दे
उस सड़क को दिखा बंद हो जाता है
असल गुन्हेगार तो वो है
देहलीज़ जो छोटी से दिखती है
एक छलावा है
दोनों की ये मिली जुली साज़िश है
जो मुझ जैसे न जाने कितने कैदीयों को
या तो डरा के फिर बेड़ियों में बाँध देती हैं
या ललचा के आजादी को पाने के संगीन जुर्म में
सजाए मौत दिला देती है .... नीलम.....

रचना



  रचना

मैं न कांच की बनी हूँ
न रुईं की
मैं भी उसी हाड मांस की बनी हूँ
जिससे तुझे भी गढ़ा गया है
फिर भी नाज़ुक सी बन
मैं तुझसे कमज़ोर होने का नाटक करती हूँ
तुझे खुश रखने के लिए
कभी तुझे संभाले रखने के लिए
कितनी बार मज़ाक बनी
न जाने कहाँ कहाँ तेरे लिए गिरी
तेरा नाम खुद के नाम से जोड़े
कितनी महफ़िलो में खड़ी
कभी मेरी तारीफ़ सुन तूने गर्व से सीना फुलाया
और कभी न जाने ज़माने की बातें सुन
तूने मुझे ज़लील किया और करवाया
मैं न कांच की बनी हूँ न रुई की
असल बात का तुझे अंदाज़ा ही नहीं  
मैं नाज़ुक सी बन भी तुझे मज़बूत किये खड़ी हूँ
और तू पत्थर की शिला सा बन भी
एक झटके में न जाने कहाँ कहाँ चूर हुआ है
तुझे टूटने से बचाने के लिए
कभी बिखरने से संभालने के लिए
तेरी ताकत बन उठाने के लिए
मेरी रचना हुयी है
मैं न कांच की बनी हूँ
न रुईं की
उसी हाड़ मांस की बनी हूँ
जिससे तुझे भी गढ़ा गया है
फर्क है बस एक
मैं नाज़ुक सी बनी भी तुझे संभाले खड़ी हूँ .... नीलम......

Thursday 14 January 2016

मेरी सिगरेट



  मेरी सिगरेट

मेरी उँगलियों में जल कर
मेरी उँगलियों में ही बुझ जाती
मेरी सबसे प्रिय बन लबों से भी टकरा जाती
और निराकार हो राख बन झड़ जाती
मेरे दर्द में
मेरी ख़ुशी में
मेरे चिंतन में
हर बार मेरी उँगलियों को गर्माहट दे जाती
तुम्हे बुरा भला सब कहा
किसी ने कभी न कभी छुटकारा पाने को भी कहा
पर अंत होने कि क्रिया को
तुझसे बेहतर कोई समझा ही न पाया
तुम बुरी हो या भली
नहीं जानती
मुझे जीवित रखे हो या नष्ट कर रही हो
नहीं समझ पाती
पर हाँ तुम हो तो कई दर्द पी गयी
तेरे संग न जाने कितने ही पल जी गयी
रात के घने अन्धकार में
मेरी उँगलियों में टिमटिमाती
न जाने तुम कितनी बातें कर गयी
कातिल बन कर भी
तुम कई बार जीवन दान बन गयी ............ नीलम ...........