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Saturday 16 January 2016

कुछ मेरा अपना



कुछ मेरा अपना

चाय का कप थामे
शब्दों का एक ताना बाना बुनता है दिमाग
कभी ये शब्द दिमाग में रेंगते
तो कभी दिल में उतर जाते
और मेरे कागज़ पर लाते लाते रूप बदल लेते  
चाय का कप भी पूछ बैठता
मेरी ज़रूरत है क्या फिर से?
सिगरेट भी उँगलियों को इशारा करती
सुलगा ही लो
वरना ये बचे कुचे शब्द भी जल जायेंगे
और फिर वही शुरू होता
चाय का कप और सिगरेट दोनों मेरे दिमाग को दौड़ाते
भूले बिसरे शब्दों को जाने कहाँ से ढूँढ लाते
चाय का वो कप जब तक 6-7 बार न भरता
और 4-5 सिगरेट जब तक राख बन झड न जाती
शब्द कहीं छुपे बैठे रहते
पर फिर जब वो निकलते तो एक रचना होती
कुछ पैदा होता नया सा
मेरे अन्दर से मेरा अपना
जिसे मैं हर बार एक नया नाम दे देती .... नीलम .....


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