एक दर्द उठा
रात भर जब आँख न लगी
दीवारों से बात करते
करते जब रौशनी हुयी
तिलमिलाती सी खुद को
संभाले
मैं बिस्तर से उठी
सूजी आँखें, निढाल
बदन
सूखा मुंह और प्यासी
जुबान
न कोई था पुकारने को
न हाथ थाम संभालने
को
अकस्मात जब गिर पडी
ज़ख़्मी सी जब पडी रही
कुछ दिखाई ही न दिया
लाखों ख्याल आये
कई बार हाथ हिला
किसी को बुलाये
कहने को तो कई प्रिय
हैं
और कई अपने हैं
पर न जाने किसी को कह
ही न पायी अपना हाल
कभी कहने से डरती
तो कभी कह के भी चुप
हो जाती
गिरती पड़ती संभाले
खडी हूँ खुद को
फिर मुस्कुराते हुए
उन्ही के लिए जो न
जान पायेंगे कभी
की इक दर्द भी उठा
था मुझे कभी.......... नीलम .........
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