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Sunday 3 January 2016

मुसाफ़िर



ए खुदाया उलझन है एक मन में
करम कर मुझ पर मौला
लगता है मेरे बुझने की घड़ी आ गयी
एक फ़रियाद है मेरी  
अब तो इस मांझी को पार लगा 
तूफानों में जून्झती इस कागज़ की नाव को
किसी किनारे तू लगा
ये मुसाफिर फिर रस्ता भूल गयी
हर लहर से टकराई पर समंदर की गहराई भूल गयी  
अब अपने साथ होने की आहट भी सुना
तेरी शमा कहीं इर्द गिर्द मुझे तू दिखा
तेरे दर पर आयी थी इक बार
झोली तूने भर दी थी मेरी
फिर इक बार रहमत बरसा
अश्क न छीन यों देकर आसरा
हार गयी हूँ लड़ते लड़ते
अपने जिस्म की ही परछाइयों से
दरिया के शोर में इन परछाइयों से मुझे तू बचा
मैं जान कर भी अनजान हूँ तेरी कुदरत से
इल्म है कि रात गुज़र जायेगी
पर न जाने तेरे चराग की ये बढ़ती लौ
किस घड़ी बुझ जायेगी
आज मुझे तू इस कशमकश ए दहर से आज़ाद करा   !!!!!!!!!!!! नीलम !!!!!!!!!!!

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