Followers

Thursday 4 February 2016

बाज़ार

     

मतलबी दुनिया के बाज़ार में
बिकता मैं हर रोज़
कौड़ियों के भाव में होता मेरा मोल
यहां से वहां लुढ़कता हर रोज़
न जाने कब मिलेगा मुझको मेरा मोल
कभी ढोता भार गधे सा
कभी भौंकता कुत्ते सा
कभी प्रभू के पैरों में रोता
समझने इस दुनिया की रीत
कैसा ये बाज़ार बनाया
जहाँ सब अपनी ही सोचते
न दिखता किसी को दर्द किसी का
न ज़ख्मो पर मरहम लगाता कोइ
बाप भला न भैया सबसे बड़ा रुपैया
यही जपते सब चारों ओर
न मुफ्त में बंटता प्यार

दया और रिश्तों पर भी यहाँ लगने लगा है ब्याज़ !!!!!!! नीलम !!!!!!

2 comments: