मतलबी दुनिया के बाज़ार में
बिकता मैं हर रोज़
कौड़ियों के भाव में होता मेरा मोल
यहां से वहां लुढ़कता हर रोज़
न जाने कब मिलेगा मुझको मेरा मोल
कभी ढोता भार गधे सा
कभी भौंकता कुत्ते सा
कभी प्रभू के पैरों में रोता
समझने इस दुनिया की रीत
कैसा ये बाज़ार बनाया
जहाँ सब अपनी ही सोचते
न दिखता किसी को दर्द किसी का
न ज़ख्मो पर मरहम लगाता कोइ
बाप भला न भैया सबसे बड़ा रुपैया
यही जपते सब चारों ओर
न मुफ्त में बंटता प्यार
दया और रिश्तों पर भी यहाँ लगने लगा है ब्याज़ !!!!!!! नीलम !!!!!!
क्या बात है।
ReplyDeleteक्या बात है।
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