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Saturday 26 December 2015

छलनी जीवन की



छलनी ने फिर छाना जीवन को
न जाने कितने पत्थर पाए
न जाने कितनी ही माटी
कही बड़ा सा रोड़ा निकला
कहीं निकली सुईं
कहीं पाया खुशियों को छनते
कही ग़मों से बढ़ते पाया
छनते छनते ज़िंदगी ने पूछा
क्या निकाल रहा मुझ से
गम न हो तो ख़ुशी न दूंगी
पत्थर देती तो रस्ता साफ़ कहीं  
मंजिल की पगडण्डी संकरी
पर यही हूँ मैं
न छान मुझे इतना
कि
चलना तू भूल जाए
रस मेरा तू ले न पाए
मुश्किल हूँ बड़ी
तो आसान भी उतनी
समझ सके तो तू समझ
न छान मुझे की रहे न जीवन में कुछ.....

  !!!!!!!!!!!! नीलम !!!!!!!!!!!!!

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