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Monday 28 December 2015

रहमत तेरी

खफा क्यों मुझसे तू मेरे मौला
क्यों ज़िन्दगी भी कर रही शिकवे
नादान मैं कब से भटक रही
क्यों मेरी झोली में तेरी तस्वीर नहीं
कहाँ खोजूं तुझे
किस गली मैं जाऊं
फकीर बनी अब फिर लौटी हूँ तेरे दर पर
ख़्वाज़ा गरीब नवाज़
देख आज मेरे अश्कों ने ही मेरे चराग की
चाँद रात में लौ बुझा डाली
ऐ खुदा कर रही हूँ इकरार गुनाहों का
इस कदर सज़ा न दे की बिखर जाऊं
ज़ख्म छूपाते हर महफ़िल में मुस्कायी हूँ
ऐ खुदा तू ही बता अब क्या करूँ
अब तो हर गज़ल हर नज़्म भी उदास है
कहाँ खोजूं तुझे
कभी इस भरी महफ़िल में
तू मुझ पर भी नज़र डाल
क्यों मैं ही तन्हा रह गयी
तेरे रेहमों करम से
कभी इस बाशिंदे पर भी ऐतबार तो कर
एक परिंदा हूँ जो आसमां न छु पायी
कभी तो मेरे परों को भी तू आसमाँ नसीब कर
सरकार तू मेरा साहिल तू
रहमत रहे तेरी मैं कभी तो आबाद रहूँ
न बुझे चराग़ मेरे घर का मेरे मौला
मैं नाम ऐ मुहम्मद लिखूँ
मेरी कलम को ये रोशनाई तू दे !!!! नीलम !!!!

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