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Saturday 17 October 2015

डोर




तुम वो सागर हो
जिसमें मेरा मिलना तय है
न चाहते हुए भी तुम तक पहुंचना तय है
कितनी भी बड़ी क्यूँ न हो जाऊं
पर इस नदी का तुझसे मिलना तय है
तू खींचता है मुझे अपनी ओर
बंधी तो तुझसे ही है मेरी डोर
तू खड़ा है स्थिर
और मैं मचलती सी पहुँच ही जाती हूँ
बिना रुके, बस बढती चली जाती हूँ तेरी ही ओर
खूब इतराई खूब लहराई
कई जंगल शहरों को पार कर आयी
हर घाट की पडी मुझ पर परछाईं
कहीं गंगा सी पवित्रता लिये
और कहीं नर्मदा सी मर्यादा लिए
अपने अल्हड़ यौवन की हर बरसात खुद में लिए
बस खींचती गयी तेरी ही ओर
तू मंजिल है मेरी
तू है मेरा वो घर
जहाँ आना ही है लौट के
क्यूंकि तुझसे ही तो बंधी है मेरी डोर !!!!!!!!!!! नीलम !!!!!!!!

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