रस्सी को जलते देखा
है
राख हो जाती है पर
बल फिर भी दिखाती है
हम भी तो ऐसे ही हैं
खुद को ख़त्म कर देते
हैं कई आगों में
पर बल फिर भी छोड़
जाते हैं
अहंकार, क्रोध,
अपमान कि अग्नि हमें नष्ट किया जा रही है
पर हम फिर भी खड़े
हैं
सूखे ठूंठ की तरह
खोखले से
अपने आपको सबसे ऊँचा
साबित करने की कोशिश में
उन हरे पेड़ों को देख
ही नहीं पाते
जो झुके हैं नम्रता
से बस फल देने को
हम समझ ही नहीं पाए
कि वो झुके से पेड़
हमसे कितने ऊँचे हैं
हम कभी छु भी न पायेंगे
उन्हें
न जाने कौन सा अहंवाद
है
जो झुकने ही नहीं
देता
बस जला कर रस्सी की
तरह
राख हो जाता है, पर
नष्ट नहीं
कहीं न कहीं बल छोड़
जाता है
और हम उसी अग्नि में
अपने साथ साथ न जाने
कितने
हरे नम्र पेड़ों को
भी झुलसा जाते हैं
क्रोध अहम से खुद को
खाख कर कर भी
संतुष्ट नहीं हैं
इसीलिए अपने आस पास
भी इसी अग्नि को प्रज्वल्लित करते हैं
पहले उस छोटी सूखी
घांस को जलवाते हैं
और फिर खुद से अनेक
ठूंठों को
जब पूरा जंगल इसकी
चपेट में आता है
तब न जाने कितने
रिश्ते और कितने प्यार ख़त्म हो जाते हैं
कितने फल पकने से
पहले ख़त्म हो जाते हैं
कितने नम्र पेड़ भी
झुलस कर सूख जाते हैं
और हम , हम तो नष्ट
हो ही जाते हैं.....!!!!!!!! नीलम !!!!!!
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