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Friday 23 October 2015

रिश्तों की डोर



कच्चे धागों से रिश्ते
कभी बनते कभी बिगड़ते
हर दिन नयी पीड़ा में जलते
बचपन से देखा है इनको
कभी टूटते कभी बिखरते
जो कहलाते थे मेरे अपने
आज मुझे ही देख क्यूँ जल जल मरते
जा कर गले लगा लूँ सबको
हाथ जोड़ माफ़ी भी मांगू
गर हो सके तो पैरों में गिर जाऊं
बस एक बार फिर से लूँ मांग
उन बिखरे रिश्तों की वही पुरानी पहचान
कडवाहट और इर्ष्या लिए
क्रोध लालच से भरे हुए
चेहरों पर चेहरा चढ़ाये
अब ये रिश्ते अपने न रहे
याद करती हूँ जब जब
वो बिताये हुए हर एक पल
उम्मीद फिर दिख जाती
उन रिश्तों से मिलने कि कल
चाची मामी वो भाई बहिन
दादी के घर का वो आँगन
पलट पलट तकती हूँ सब
मेरे होकर भी सब कितने हैं दूर
बढ़ते कदम भी जाते अब डर
न जाने क्यों खोया सब कुछ
इन रिश्तों ने क्यूँ मुंह मोड़ लिया
क्यूँ मुझको खुद से दूर किया
फिर भी कोशिश करुँगी समेटने कि इन बिखरे से रिश्तों को
उस मन को सिलने की
उस कच्चे धागे को फिर जोड़ने कि
जो बांधेगा डोर इन रिश्तों कि
फिर होगी सच वो तस्वीर
जहाँ होंगे मेरे अपने मेरे बहुत करीब !!!!!!!!!!! नीलम !!!!!!!!!!!!

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