किस दोराहे पर खडी
हूँ आज
खुद को ही धोखा दे
रही हूँ
जो है सच वो झूठ हो
जाए
और जो झूठ है वो सच
यही सोच आँखों पर
बंधा है कपडा आज
खोल दूँ इस पट्टे को
मन ही नहीं करता
बाहर देखूं तो डर सा
लगता
क्यूँ सच नहीं अच्छा
लगता
इस झूठ से क्यूँ
प्यार बढ़ता रहता
जानती हूँ अंत न
पायेगा कुछ
मेरे झूठ बस रह
जाएगा झूठ
सच कह भी नहीं सकती
और डरावना तो झूठ भी
कम नहीं
काला गहरा सा ये
अन्धेरा जो ढके है मेरे मन को
और आँखों को
ले जाएगा जाने कहाँ
कौन सा रास्ता
ढूँढेगा मुझे
या हो जाउंगी इसी
अन्धकार में कहीं फ़ना
झूठ के पैर नहीं
सच की भी तो ठहर
नहीं
किस को पकडू किसको
छोडू
तय तो आज ये भी नहीं
सच नहीं छूटता मुझसे
झूठ को छोड़ने का भी
मन नहीं
मन पागल है
समझेगा नहीं
और मैं इसी दोराहे
पर् रह जाउंगी यूँ ही खड़ी !!!!!!!!!! नीलम !!!!!!!!!!!!!!!
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