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Saturday 26 September 2015

मैं सच और झूठ



किस दोराहे पर खडी हूँ आज
खुद को ही धोखा दे रही हूँ
जो है सच वो झूठ हो जाए
और जो झूठ है वो सच
यही सोच आँखों पर बंधा है कपडा आज

खोल दूँ इस पट्टे को मन ही नहीं करता
बाहर देखूं तो डर सा लगता
क्यूँ सच नहीं अच्छा लगता
इस झूठ से क्यूँ प्यार बढ़ता रहता

जानती हूँ अंत न पायेगा कुछ
मेरे झूठ बस रह जाएगा झूठ
सच कह भी नहीं सकती
और डरावना तो झूठ भी कम नहीं

काला गहरा सा ये अन्धेरा जो ढके है मेरे मन को
और आँखों को
ले जाएगा जाने कहाँ
कौन सा रास्ता ढूँढेगा मुझे
या हो जाउंगी इसी अन्धकार में कहीं फ़ना
झूठ के पैर नहीं
सच की भी तो ठहर नहीं
किस को पकडू किसको छोडू
तय तो आज ये भी नहीं
सच नहीं छूटता मुझसे
झूठ को छोड़ने का भी मन नहीं
मन पागल है
समझेगा नहीं
और मैं इसी दोराहे पर् रह जाउंगी यूँ ही खड़ी !!!!!!!!!! नीलम !!!!!!!!!!!!!!!

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