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Thursday 17 September 2015

मेरे ख्वाब

तकिये के नीचे बिस्तर पर मेरे
न जाने कितने ख्वाब हैं मेरे
आंसूओं में बहते हैं रोज़ ये कितने
कभी हंसी में भी झलकते रहते
जीती हूँ रोज़ इन्हें अपने में समेटे
रात को फिर बिखरे से
बिस्तर पर पड़े हैं मेरे
आज कौन सा ख्वाब पहुंचेगा
मेरे तकिये के नीचे
और नींद में भी जगायेगा सारी रात
करेगा न जाने क्या क्या बात
फिर जब जागुंगी पाउंगी
फिर उसे बिस्तर पर सभी के साथ
हर रात बस यही
चलता मेरे ख़्वाबों का सिलसिला
कोई रोता उनमे तो कोई हँसता
मैं भी तकिये को सर के नीचे दबा
करती रहती  इंतज़ार उनका
कुछ तो हैं इतने नटखट
नींद में भी करते नाटक
पास आकर छूते मुझको
गायब भी हो जाते झटपट
बस यही तो है मेरे अपने
मनाते भी खुद हैं और रूठ भी जाते
संग हैं मेरे रोते हँसते
तकिये के नीचे बिस्तर पर मेरे
न जाने कितने ख्वाब हैं मेरे ........... नीलम ........








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