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Sunday 6 September 2015

इंतज़ार



गर्मियों कि चिलचिलाती धुप
ये शहर के अनजाने रास्ते , क़दमों को और जला रहे हैं
सूरज कि तपिश अब शरीर को ही नहीं
आत्मा को भी झुलसा रही है
भू में पड़ी दरारें मन में पड़े अकाल को स्पष्ट कर रही हैं
देवराज के इंतज़ार में,
चक्षुओं का नीर भी अब सूखता चला जा रहा है
जयमालाएं सिकुड़ती जा रही हैं
जैसे चित्त कि सिकुडन
अधरों का सूखापन
उन सूखे पड़े वृक्षों समान है,
जो वसुंधरा के सोम की आखरी बूँद से जीवित खड़े
नभ से सुरपति के आने के इंतज़ार में !
मेरी आत्मा का अकाल और मन में आयी दरारें भी
आज अपने अमरेश के इंतज़ार में सोम की आखरी बूँद से
जीवित हैं !!!!!!!!!!!!!

! नीलम !

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