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Sunday 6 September 2015

शब्द



मेरे शब्द सुन्दर और सजे हुए नहीं
पर कोशिश की है की साफ़ और सरल हों
बनावटी लोगों और शब्दों से मन घबराता है
इस दो मुखी चेहरे वाली दुनिया कि चाहतें
मानो आत्मा के पवित्र रूप को पहचानने से इनकार कर रहे हों
वो शब्द जो अन्दर ही अन्दर एक ताना बना बुनते हैं
उनकी सफाई जुबां तक आते आते क्यों गन्दगी से भर जाती है
और वही सरल और सुन्दर शब्द कठिन और अभद्र हो जाते है
क्या मन की भाषा दिमाग को समझने में कठिन लगती है
या मन के शब्द सरलता से पहुँच ही नहीं पाते मुख्य तक
क्यों दिल की जुबां बेजुबान है
और जिव्य्हा उस से रुष्ट
क्या मेरा साफ़ और सरलता से बोलना इतना भयावह है
की लोग समझना ही नहीं चाहते या समझ कर दूर भागते हैं
क्या मेरी आत्मा की सरलता किस के प्रेम के योग्य नहीं
या मेरा कुछ कहना व्यर्थ ही है
सुन कर भी अनसुना कर देने वाले ये दो मुखी चेहरे
क्या कभी समझ पायेंगे अपनी और मेरी आत्मा की इस पवित्रता को 

...... नीलम

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