पहाड़ से ऊँचा
अस्तित्व
नदी सा बहता मन
इच्छाओं का वो समंदर
जंगल से भयानक मुख्य
और सांप सा ज़हरीला वो
चित्त
कल्पनाओं में दीखता
है एक चेहरा
इन सब को अपने में
समाये
सुन्दर सजीला सा
चेहरा
अपनी ओर खींचता है
बाँध लेता है खुद से
और फिर धीरे धीरे
अपनी चाल से पिरोता है जाल
ऐसे जाल.... निकल
नहीं पाया कोई जिनसे
वो मोह उसके चेहरे
का
देखने ही नहीं देता
उसके भीतर
नज़रों को वहीँ रोक
लेता है
खड़ा हो जैसे शिला की
तरह
उस पहचान को संभाले
ओर खोया हो अपने ही
उस झूठ के आनंद में !!!!!!! ........... नीलम ........
No comments:
Post a Comment