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Tuesday 22 September 2015

अस्तित्व




पहाड़ से ऊँचा अस्तित्व
नदी सा बहता मन
इच्छाओं का वो समंदर
जंगल से भयानक मुख्य
और सांप सा ज़हरीला वो चित्त
कल्पनाओं में दीखता है एक चेहरा
इन सब को अपने में समाये
सुन्दर सजीला सा चेहरा
अपनी ओर खींचता है
बाँध लेता है खुद से
और फिर धीरे धीरे अपनी चाल से पिरोता है जाल
ऐसे जाल.... निकल नहीं पाया कोई जिनसे
वो मोह उसके चेहरे का
देखने ही नहीं देता उसके भीतर
नज़रों को वहीँ रोक लेता है
खड़ा हो जैसे शिला की तरह
उस पहचान को संभाले
ओर खोया हो अपने ही उस झूठ के आनंद में !!!!!!! ........... नीलम ........

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