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Sunday 6 September 2015

मेरा शहर



मेरा कोई एक शहर नहीं
जहाँ जाती हूँ वहीँ का होने कि कोशिश करती हूँ
पर क्यों हर शहर के लोग यही कहते हैं
कि ये शहर तुम्हारा न हो पायेगा
मुझे तो ये गलियाँ मकान सड़कें सब एक सी लगती हैं
हर शहर एक ही सा लगता है
बस दिशाएं ही तो बदल जाती हैं
बहुत अचम्भा होता है ये देख कर की अजीवित और जीवित सब एक से तो हैं
फिर ये फर्क क्या है
जो कहता है कि मैं दुसरे शहर की हूँ
जहाँ जाती हूँ ये वाक्य तानो के रूप में सुनाई पड़ता है
मेरा तो कोई एक शहर ही नहीं
हर शहर को बस अपना बनाना चाहती हूँ
वो खुली खिड़कियाँ वो बंद दरवाज़े
घरों से आती वो घूंघरूयों की आवाज़ सब वैसा ही तो है
जहां मेरी माँ रहती है
तो क्या फर्क है
हर शहर तो एक जैसा ही है
वही हाट बाज़ार, रंग बिरंगी स्कूल की पोशाकें
वही दाल चावल चीनी
वही मानसिकता वही सोच वही रोज़ की लड़ी जा रही लड़ाईयां
सुबह के नाश्ते की खुशबू से लेकर रात के खाने पर बहस
वही पुलिस चौकिया वही अस्पतालों में किया जाने वाला इलाज
क्या सिर्फ गाडी के नंबर अलग होना ही शहरों में फर्क लाता है
क्या यही है जो रोक रहा है इस शहर को मुझे अपनाने से
क्यों लोग कहते हैं कि ये शहर मेरा न हो पायेगा
मुझ में और यहाँ कि औरत में क्या फर्क है,
जननी वो भी है और मैं भी
मेरा तो कोई एक शहर नहीं
जहाँ जाती हूँ वहीँ की होने का कोशिश करती हूँ
आसान है मुझे अपनाना कोशिश तो करो
मेरा कोई एक शहर नहीं
जहाँ जाती हूँ वहीँ का होने कि कोशिश करती हूँ !!!!!!!!!!!!!!!

 ! नीलम !

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