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Friday 11 September 2015

dedicated to all you women who are giving life to everyone....
गिरहों को अब खोलना है
बंधे बंधे अब दम घुटने लगा है
कितनी गिरहें बाकी हैं
जिन्हें तोडना है
हर जगह से बंधी हूँ मैं !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
न जाने कितनी गिरहो में लिपटी हूँ मैं
पैरों की पाजेब से लेकर
गुंथी हुयी इस चोटी में
सर पे पड़े आँचल से ले हाथ की चूड़ियों में
कमरबंध से ले ऊँगली में पडी अंगूठी तक
जाने कितनी गिरहें बाकी हैं
माथे की बिंदी से ले आंखों में पड़े काजल में
देहलीज़ से लेकर घर के आँगन में
प्यार से लेकर किसी के बिस्तर में
बेटी से ले पत्नी बन जाने में
न जाने कितनी गिरहों में लिपटी हूँ में
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
न जाने कितनी गिरहें बाकी हैं
माँ बन कर बच्चों के प्यार में
पत्नी बन पति के मोहजाल में
परिवार के हंसने और रोने में
कहाँ वक़्त है मुझे
इन गिरहों को तोड़ने के लिए
सोचती हूँ कई बार
मेरी ही मर्जी है बंधे रहना
अपने को लुटा दूसरों को आबाद करना
सब ही तो हक़दार हैं मेरे
लेते चले जा रहे हैं
मेरा हर कण मुझसे
और मैं भी लिपटती चली जा रहीं हूँ सब से
क्या खोल पाउंगी कभी वो गिरहें
या बस बंधती ही चली जाउंगी
न जाने कितनी गिरहों में लिपटी हूँ में
और कितनी गिरहें खोली हैं ................!!!!!!!!!! नीलम

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