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Tuesday 29 September 2015

मीरा



मीरा को न जाने क्या सूझी ?कौन सी थी वो मजबूरी ....ज़हर का प्याला क्यूँ ले बैठी ? गर न आते मोहन ये जान ....तो क्या ले लेती वो भी अपने प्राण???? शायद यही था मीरा का प्रेम, निस्वार्थ सच्चा , ऐसा जैसे पानी का रंग.... मोहन ने न सोचा होगा, मीरा जैसा कोई होगा .....पर मीरा मैं तुझ सी न बन पाई, तेरे मोहन जैसा नहीं है मोहन मेरा.... वो खुश है अपनी रास लीला में .... ख्याल ही कहाँ होगा इस मीरा में ?
मेरे दुःख रहे हैं अब नैन न पाया अब तक मैंने चैन, तुझ सा ही तो प्रेम किया था, प्राणों से भी ज्यादा अपने...मोहन को पूजा भी दिल से..... रात दिन करती थी याद , एक झलक दिखला जा आज..... उसने तो सुना ही नहीं, जान कर भी न पाया पहचान, मीरा तेरी भक्ति है अपार, पर मेरा भी पूरा था प्यार...तू तो पा गयी कान्हा को , मैं कृष्णा को ढूढूं किस पार.... मोहन तुझ संग रहते हैं, मन में मेरे भी बसते हैं.....फर्क है बस इतना तूने पाया विष में अमृत और मैं दे बैठी अपने प्राण !!!!!! नीलम !!!!!!!

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